Tuesday, December 17, 2024

प्राण और अपान क्या होते है क्या ऊर्जा के स्त्रोत यही है

 उपनिषद--कठोपनिषद के सूत्र की व्याख्या

ऊर्ध्वं प्राणमन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।

मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते।। 3।।

जो प्राण को ऊपर की ओर उठाता है और अपान को नीचे ढकेलता है शरीर के मध्य हृदय में बैठे हुए उस सर्वश्रेष्ठ भजने योग्य परमात्मा की सभी देवता उपासना करते हैं।




भारतीय #योग की एक गहरी खोज इस सूत्र में छिपी है।

पश्चिम का चिकित्साशास्त्र, मेडिकल साइंस अभी भी इस संबंध में करीब—करीब अपरिचित है। यह खोज है प्राण और अपान की।

भारतीय चिकित्साशास्त्र #आयुर्वेद, योग, #तंत्र, इन सबकी यह प्रतीति है कि शरीर में वायु की दो दिशाएं हैं। एक दिशा ऊपर की ओर है, उसका नाम प्राण। और एक दिशा नीचे की ओर है, उसका नाम अपान। 

शरीर में वायु का दोहरा रूप है और दो तरह की धाराएं हैं। जो मल—मूत्र विसर्जित होता है, वह अपान के कारण है। वह जो नीचे की तरफ वायु बह रही है, वही #मल—मूत्र को नीचे की तरफ अपनी धारा में ले जाती है। और जीवन में जितनी भी ऊपर की तरफ जाने वाली चीजें हैं, वे सब प्राण से जाती हैं।

इसलिए जो जितना ज्यादा #प्राणायाम को साध लेता है, उतना ऊपर उठने में कुशल हो जाता है। क्योंकि ऊपर जाने वाली धारा को विस्तार कर रहा है, फैला रहा है, बड़ा कर रहा है।

ये दो धाराएं हैं, दो करेंट हैं #वायु के, शरीर के भीतर। और इन दोनों के मध्य स्थित है परमात्मा, या आत्मा, या चेतना, या जो भी नाम आप देना चाहें। 

वह जो अंगुष्ठ आकार का #आत्मा है, वह इन दोनों धाराओं के बीच में उपस्थित है। वही वायु को नीचे की तरफ धकाता है, वही वायु को ऊपर की तरफ धकाता है। 

#प्राण—ऊपर की तरफ जाने वाली वायु। 

#अपान—नीचे की तरफ जाने वाली वायु।

पश्चिम का चिकित्साशास्त्र अभी भी इस दोहरी धारा को नहीं पहचान पाया है। उनका खयाल है, वायु एक ही तरह की है। इसलिए वायु के आधार पर जो बहुत—से काम आयुर्वेद कर सकता है, वह ऐलोपैथी नहीं कर सकती। वायु की इन धाराओं को ठीक से समझ लेने वाला व्यक्ति जीवन में बड़ी क्रातिया कर सकता है।

छोटा बच्चा #श्वास लेता है, तो आपने देखा है कि जब छोटा बच्चा श्वास लेता है तो उसका पेट ऊपर—नीचे जाता है। बच्चा लेटा है, श्वास लेता है, तो पेट ऊपर जाता है, नीचे जाता है। छाती पर कोई हलन—चलन भी नहीं होती। उसकी श्वास बड़ी गहरी है। आप जब श्वास लेते हैं तो सीना ऊपर उठता है, नीचे गिरता है। आपकी श्वास उथली है,गहरी नहीं है।

मनसविद बड़े हैरान हैं कि यह घटना क्यों घटती है? उम्र बढ़ने के साथ श्वास उथली क्यों हो जाती है? और बच्चे की श्वास गहरी क्यों होती है? जानवरों की श्वास भी गहरी होती है। जंगली आदमियों की श्वास भी गहरी होती है। जितना सभ्य आदमी हो, उतनी उथली श्वम्म हो जाती है।

 बड़ी मुश्किल की बात है कि सभ्यता से श्वास का ऐसा क्या संबंध होगा? और वह कौन—सी घड़ी है जब से बच्चा गहरी श्वास लेना बंद कर देता है?

योग इस राज को जानता है। और यह राज अब मनोविज्ञान को भी थोड़ा— थोड़ा साफ होने लगा है। क्योंकि मनोवैशानिक कहते हैं कि बच्चे को जिस दिन से काम का भय पैदा हो जाता है, वासना का भय मां —बाप जिस दिन से उसे सचेत कर देते हैं सेक्स के प्रति, उसी दिन से उसकी श्वास उथली हो जाती है। क्योंकि श्वास जब गहरी जाती है, तो कामकेंद्र पर चोट करती है। वह अपान बन जाती है। और कामवासना को जगाती है।

जितनी गहरी श्वास होगी, उतनी कामवासना सतेज होगी। बच्चे भयभीत कर दिए जाते हैं कि काम बुरा है,सेक्स पाप है। वे घबरा जाते हैं। तो अपनी श्वास को ऊपर सम्हालने लगते हैं, वे उसको गहरा नहीं जाने देते। फिर धीरे— धीरे उनकी श्वास सिर्फ ऊपर—ऊपर चलने लगती है। उनके कामकेंद्र और स्वयं के बीच एक फासला हो जाता है। 

ऐसे व्यक्तियों के जीवन में कामवासना विकृत हो जाती है। वे संभोग का किसी तरह का भी सुख नहीं ले पाते, क्योंकि संभोग के लिए बड़ी गहरी श्वास जरूरी है।

और जब गहरी श्वास हो, तो पूरा शरीर आदोलित होता है। और शरीर के पूरे आदोलन में, शरीर के पूरी तरह समाविष्ट हो जाने में इस प्रक्रिया में, पूरी तरह डूब जाने से, थोड़ा—बहुत सुख का आभास मिलता है। लेकिन वह आभास भी असंभव हो जाता है, क्योंकि श्वास इतनी गहरी नहीं जाती। और न—मालूम कितनी बीमारियां इसके साथ पैदा होती हैं, क्योंकि आपका अपान कमजोर हो जाता है।

जो लोग भी उथली श्वास लेते हैं, उनको कब्जियत हो जाएगी। क्योंकि अपान, जो वायु नीचे जाकर मल को विसर्जित करती है, वह वायु नीचे नहीं जा रही है। लेकिन डर वही है। क्योंकि वीर्य भी मल है उसको भी निष्कासित करने के लिए वायु को नीचे तक जाना चाहिए। अपान बनना चाहिए। तो जो व्यक्ति भी डरेगा सेक्स से, उसको कब्जियत भी पकड़ लेगी। क्योंकि वह एक ही वायु दोनों को धक्का देती है। 

ब्रह्मचर्य का प्रयोग अपान को रोकने से नहीं होता। ब्रह्मचर्य का प्रयोग प्राण को बढ़ाने से होता है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। हम सारे लोगों ने ब्रह्मचर्य के नाम पर गलत कर लिया है और अपान को रोक लिया है। उसकी वजह से हम सिर्फ रुग्ण और बीमार हो गए हैं। हमारे व्यक्तित्व की जो गरिमा और जो स्वास्थ्य हो सकता था, वह नष्ट हो गया है। और शरीर न—मालूम कितने जहर से भर जाता है। क्योंकि जो अपान सारे जहरों को शरीर के बाहर फेंकती है, वह नहीं फेंक पाती। आप डरे हुए हैं। ब्रह्मचर्य की यह निषेधात्मक प्रक्रिया है—निगेटिव।

एक विधायक प्रक्रिया है—अपान को मत छेड़े, प्राण को बढ़ाए। प्राण इतना ज्यादा हो जाए कि अपान उसके मुकाबले बिलकुल छोटा हो जाए। एक बड़ी लकीर खींच दें। तो अपान शुद्ध रहे और प्राण विराट हो जाए, तो आपकी ऊर्जा ऊपर की तरफ बहने लगे।

इसलिए प्राणायाम का इतना उपयोग है योग में, क्योंकि प्राणायाम धक्के देता है ऊपर की तरफ ऊर्जा को। जो काम—ऊर्जा अपान के द्वारा सेक्स बनती है, वही काम—ऊर्जा प्राण के द्वारा कुंडलिनी बन जाती है। वह ऊपर की तरफ बहने लगती है। और ऊपर की तरफ बहते—बहते मस्तिष्क में जाकर उसका कमल खिल जाता है।

अपान के धक्के से वही कामवासना किसी बच्चे का जन्म बनती है, प्राण के धक्के से वही कामवासना आपका स्वयं का नया जन्म बन जाती है—लेकिन मस्तिष्क तक आ जाए तब। तो प्राण उसे ऊपर की तरफ लाता है।

यह सूत्र कह रहा है कि प्राण और अपान दोनों के बीच में छिपा है वह परमात्मा, जिसके संबंध में तुमने पूछा था। वही नीचे की तरफ अपान को ले जाता है, वही प्रकृति का आधार है। और वही प्राण को ऊपर की तरफ ले जाता है, वही परलोक का आधार है। यह तेरे ऊपर निर्भर है कि तू किस धारा में प्रविष्ट होना चाहता है। अगर तू नीचे की धारा में प्रविष्ट होना चाहता है, तो तुझे अपान को बढ़ाना होगा।

सभी पशुओं का अपान बड़ा प्रबल होता है, उनका प्राण बहुत निर्बल होता है। सिर्फ योगियों का प्राण सबल होता है। अपान स्वस्थ होता है और प्राण इतना सबल होता है कि अपान, स्वस्थ अपान भी उस पर कब्जा नहीं कर पाता;कब्जा प्राण का ही होता है। साधारण आदमी का प्राण तो कमजोर होता ही है, वह अपान भी कमजोर कर लेता है, डर और भय के कारण।

भयभीत आदमी गहरी श्वास नहीं लेता। सिर्फ निर्भय आदमी गहरी श्वास लेता है। किसी भी कारण से डरा हुआ आदमी गहरी श्वास नहीं लेता। कोई आदमी आपकी छाती पर छुरा लाकर रख दे, श्वास रुक जाएगी। जब भी आप भयभीत होंगे, श्वास रुक जाएगी। जहा भी आप घबड़ा जाते हैं, किसी से मिलने गए हैं, किसी बड़े आफिसर से और घबड़ा गए हैं, बस श्वास उथली हो जाती है, ऊपर—ऊपर चलने लगती है। फिर आप बाहर आकर ही ठीक से श्वास ले पाते हैं।

हम इतना डरा दिए हैं एक—दूसरे को कि हमारा सब श्वास का पूरा यंत्र—जाल अस्वस्थ हो गया है। दोनों के बीच में छिपा है परमात्मा, दोनों का मालिक वही है।

अपान से डरने की कोई भी जरूरत नहीं, क्योंकि शरीर का सारा स्वास्थ्य उस पर निर्भर है। निष्कासन उसका काम है। और अगर निष्कासन ठीक न हो, तो शरीर में जहर टाक्सिन्स इकट्ठे हो जाएंगे। और वे इकट्ठे हो गए हैं। हर आदमी के खून में जहर चल रहा है।

व्यायाम कोई आदमी करे, दौड़े, चले, तैरे, तो अपान सबल हो जाता है। इसलिए शरीर में एक ताजगी और स्वास्थ्य आ जाता है। लेकिन कोई गहरी श्वास लें—प्राणायाम सिर्फ गहरी श्वास नहीं है, प्राणायाम बोधपूर्वक गहरी श्वास है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। बहुत से लोग प्राणायाम भी करते हैं, तो बोधपूर्वक नहीं, बस गहरी श्वास लेते रहते हैं।

अगर गहरी श्वास ही आप सिर्फ लेंगे, तो अपान स्वस्थ हो जाएगा। बुरा नहीं है, अच्छा है। लेकिन ऊर्ध्वगति नहीं होगी। ऊर्ध्वगति तो तब होगी जब श्वास की गहराई के साथ आपकी अवेयरनेस, आपकी जागरूकता भीतर जुड़ जाए।

बुद्ध ने कहा है, श्वास चले, नाक को छुए, तब तुम जानो कि नाक छू रही है। भीतर चले, नासापुटों में स्पर्श हो, जानो कि नासापुटों में स्पर्श हो रहा है। कंठ में उतरे, जानो कि कंठ में स्पर्श हो रहा है। फेफड़ों में आए, नीचे जाए,पेट तक पहुंचे, तुम देखते चले जाओ, उसके पीछे—पीछे ही तुम्हारी स्मृति लगी रहे। फिर एक क्षण को रुक जाएगी—गैप। वह गैप बड़ा कीमती है।

जब आप श्वास गहरी लेंगे, एक क्षण को जब भीतर पहुंच जाएंगे, एक क्षण को कोई श्वास नहीं होगी,। बाहर न भीतर। सब ठहर जाएगा। फिर श्वास बाहर लौटेगी। एक सेकेंड विश्राम करके फिर बाहर तरफ चलेगी, तब तुम भी उसके साथ बाहर चलो। उठो, उसी के साथ। आओ कंठ तक, आओ नाक तक। बाहर निकल जाए, उसका पीछा करते रहो। फिर बाहर जाकर एक सेकेंड को सब ठहर जाएगा। फिर नई श्वास शुरू होगी। फिर भीतर, फिर बाहर।

बुद्ध ने कहा है, तुम इसको माला बना लो और तुम इसी के गुरियों के साथ अपने स्मरण को जगाते रहो। अगर गहरी श्वास के साथ बोध हो, तो प्राण का विस्तार होता है, और जीवन—ऊर्जा की गति ऊपर की तरफ होनी शुरू हो जाती है।

बोध ऊपर का सूत्र है, मूर्च्छा नीचे का सूत्र है।

अगर कोई व्यक्ति निरंतर, जब भी उसे स्मरण आ जाए, सिर्फ श्वास पर बोध को साधता रहे, तो किसी और साधना की जरूरत नहीं। उतना काफी है। पर वह बड़ा कठिन है। चौबीस घंटे, जब भी खयाल आ जाए, तो श्वास को?.। किसी को पता भी नहीं चलेगा, चुपचाप यह हो सकता है। किसी को खबर भी नहीं होगी कि आप क्या कर रहे हैं। किसी को भी पता नहीं चलेगा।

#जीसस ने कहा है कि तुम्हारा बायां हाथ जब कुछ करे, तो दाएं हाथ को पता न चले।

यह इस तरह की प्रक्रिया है, जिसमें किसी को भी पता नहीं चलेगा। तुम चुपचाप अपनी श्वास के साथ धीरे—धीरे स्मृति से भरते चले जाओगे। और जैसे—जैसे स्मृति गहन होगी, श्वास गहरी होगी, वैसे—वैसे उसकी चोट स्मरणपूर्वक तुम्हारी ऊर्जा को रीढ़ के मार्ग से ऊपर की तरफ उठाने लगेगी। और यह कोई कल्पना की बात नहीं है, तुम अपनी रीढ़ में निश्चित रूप से विद्युत की धारा को उठता हुआ पाओगे। तरंगें तुम्हारी रीढ़ में दौड़ने लगेंगी। 

वे तरंगें उत्तप्त होंगी। और तुम चाहो तो तुम अपने हाथ से छूकर देख भी सकते हो, जहा तरंगें होंगी वहां रीढ़ गरम हो जाएगी। और जैसे—जैसे यह गर्म ऊर्जा ऊपर की तरफ उठेगी, तुम्हारी रीढ़ उत्तप्त होने लगेगी। तुम अनुभव करोगे कि कहा तक जाती है यह ऊर्जा। फिर गिर जाती है, फिर जाती है।

निरंतर अभ्यास से एक दिन यह #ऊर्जा तुम्हारे ठीक #सहस्रार तक पहुंच जाती है। लेकिन इस बीच यह और #चक्रों से गुजरती है और हर चक्र के अपने अनुभव हैं। हर चक्र पर तुम्हारे जीवन में नया प्रकाश, और हर चक्र से जब यह ऊर्जा गुजरेगी तो तुम्हारे जीवन में नई #सुगंध, नए अर्थ, नए अभिप्राय प्रगट होने लगेंगे। नए फूल खिलने लगेंगे।

योगशास्त्र ने पूरी तरह निश्चित किया है—हजारों —लाखों प्रयोग करने के बाद—कि हर केंद्र पर क्या घटता है। एक—दो उदाहरण, ताकि खयाल में आ जाए। और उसी हिसाब से इन #केंद्रों के, चक्रों के नाम रखे हैं।

जैसे दोनों आंखों के बीच में जो चक्र है, उसको योग ने #आज्ञा—चक्र कहा है। उसको आज्ञा—चक्र इसलिए कहा है कि जिस दिन तुम्हारी ऊर्जा उस चक्र से गुजरेगी, तुम्हारा #शरीर, तुम्हारी #इंद्रियां तुम्हारी #आज्ञा मानने लगेंगी। तुम जो कहोगे, उसी #क्षण होगा। तुम्हारा #व्यक्तित्व तुम्हारे हाथ में आ जाएगा, तुम #मालिक हो जाओगे।

इस चक्र के पहले तुम गुलाम हो। इस चक्र में जिस दिन ऊर्जा प्रवेश करेगी, उस दिन से तुम्हारी मालकियत हो जाएगी। उस दिन से तुम जो चाहोगे, तुम्हारा शरीर तुम्हारी आज्ञा मानेगा। अभी तुम्हें शरीर की आज्ञा माननी पड़ती है,क्योंकि जहां से शरीर को आज्ञा दी जा सकती है, उस जगह पर तुम अभी भी खाली हो। वहा ऊर्जा नहीं है, जहां से आज्ञा दी जा सकती है। इसलिए उस चक्र का नाम आज्ञा—चक्र है।

ऐसे ही सब चक्रों के नाम हैं। वे नाम सार्थक हैं। और हर चक्र के साथ एक विशिष्ट अनुभव जुड़ा है। 

आखिरी चक्र है #सहस्रार। सहस्रार का अर्थ होता है —सहस्र पंखुड़ियों वाला कमल। निश्चित ही जिस दि न श्र ही ऊर्जा पहुंचती है, वहा पूरा मस्तिष्क ऐसा मालूम होता है कि जैसे हजार पंखुडियों वाला कमल हो गया। —और वह कमल खिला है, आकाश की तरफ उन्मूख, सारी पंखुड़ियां खिल गयीं। और उससे जो अपूर्व भानंद का अनुभव, और जो अपूर्व सुगंध की वर्षा, और जीवन में जो पहली बार पूर्ण प्रकाश उतरता दे — ठीक ही कमल से उसको हमने चुना है। कई कारण हैं। उसको हमने सहस्रार कहा है, सहस्रदल कमल।

उपनिषद--कठोपनिषद--ओशो (ग्‍यारहवां--प्रवचन) बोध ही ऊर्ध्‍वगमन

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