योग की परिभाषाये एवं स्वरुप
योग शब्द 'युज' धातु से बना है जिसका अर्थ जोड़ना अर्थात
जो युक्त करे मिलावे उसे योग कहते है। इस सम्बन्ध में योग सूत्र के रचनाकार महर्षि
पतंजलि ने 'योग समाधी' कहकर योग को समाधी के रूप में परिभाषित किया है अर्थात कामना,
वासना, आसक्ति, संस्कार, आदि सब प्रकार की आगंतुक मलिनता को दूर कर स्वरुप में प्रतिष्ठित
होना - जीव का ब्रह्म होना -समाधी है ।
विभिन्न आचार्यो ने भिन्न भिन्न साधनो द्वारा
इस लक्ष्य अर्थात-'समाधी' की स्थिति को प्राप्त किया है। वेद विश्व के सबसे
प्राचीन ग्रन्थ है । ये मंत्रद्रष्टा ऋषियों के अंतर्ज्ञान के आत्मसाक्षात्कार के प्रमाण
है । वेद के प्रत्येक विभाग में योग को किसी न किसी रूप में मान्यता मिली है ।
वेद के तीन काण्ड है-
१. कर्मकाण्ड २. ज्ञानकाण्ड ३. उपासनाकाण्ड
।
१. कर्मकाण्ड के अनुसार -योग:
कर्मसुकौशलम अर्थात कर्मो में कुशलता है योग है ।
२. ज्ञानकाण्ड के अनुसार - संयोगो
योग इत्युक्तो जिवात्मपरमात्मनो: अर्थात जीवात्मा -परमात्मा का संयोग -एकीकरण योग
है ।
३. उपसनाकाण्ड काण्ड के अनुसार - योग
चित्त वृत्ति निरोधा: अर्थात चित के वृत्तिओं का निरोध ही योग है ।
४. योगतत्त्वोपनिषद के अनुसार - मोक्ष प्राप्ति
के लिए ज्ञान तथा योग दोनों आवश्यक है ।
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षो वा भवति ध्रुवम।
योगोपी ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकारमणी ॥
योग के बिना ज्ञान
या ध्रुव मोक्ष भला कैसे हो सकता है ? उसी प्रकार ज्ञानहीन योग bhi मोक्षकर्म में असमर्थ
है ।
क. 'समत्वं योग उच्यते' अर्थात सुख दुःख आदि
के बीच चित या मन का समान बने रहना,
ख. तत्रोपरमते चितं निरुद्ध योगसेवया अर्थात चित की स्थिरता
ग. 'पश्य में योगमेश्वरम अर्थात संयमन सामर्थ
प्रभाव।
योगवासिष्ठ जो आध्यात्मिक
ग्रंथो में उच्य कोटि का ग्रन्थ है में संसार सागर से पार होने की युक्ति को ही योग
कहा गया है । इसमें योग की तीन विधियां बताई गयी है .
१. एक तत्व की दृढ़ भावना,
२. मन की शांति और
३. प्राणों के स्पंदन का निरोध ।
इन तीनो में किसी एक
के सिद्धि होने पर तीनों सिद्ध हो जाते है ।
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