योग
पिछले कई दशकों से आधुनिक बिमारियों जैसे मानसिक तनाव, मोटापा, डायबिटीज, उच्य रक्तचाप,
ह्रदय घात, गंभीर श्वशन रोग, दमा, अस्थमा एवं माइग्रेन आदि रोगों में चिकित्सीय उद्देश्य
में अनुशंधान का प्रमुख विषय बना हुआ है । अनेक शोध अध्ध्यनों से स्पस्ट है की योग
के द्वारा प्राचीनकाल से ही अनेक तरह की रोगों एवं गंभीर बिमारियों को ठीक करने में
सहायक है, साथ ही इसके अभूतपूर्व लाभ एवं प्रभाव देखने में आते है। वर्तमान में जितने
भी शोध कार्य हो रहे है उनमे योगासन एवं प्राणायाम के माधयम अनेक रोंगो का इलाज सफलतापूर्वक
किया जा रहा है। योग द्वारा इन रोगों को बिना किसी औषधि से ठीक कर रहे है । योग, प्राणायाम,
ध्यान आदि की निरंतर अभ्यास से अनेक रोगों से बचा जा सकता है। आजकल लोगों में आम धारणा
यह है की योग के द्वारा सिर्फ बीमारियों को सही किया जाता है और जब आप रोगग्रस्त हो
तो योग करे है जबकि योग इससे भी कही आगे है का विज्ञान है ।
योग एक आध्यत्मिक प्रक्रिया एवं विज्ञान है, जिसके द्वारा शरीर, मन (इन्द्रियों)
और आत्मा को एक साथ लाने का कार्य ही योग है । इस प्रकार ‘योग शब्द का अर्थ हुआ- समाधि
अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध । महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी
है वो इस प्रकार है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः',
चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों
के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।
योगसूत्र, योग दर्शन का मूल ग्रंथ है। यह
छः दर्शनों में से एक शास्त्र है और योगशास्त्र का एक ग्रंथ है। योगसूत्रों की रचना
४०० ई॰ के पहले पतंजलि ने की। इसके लिए
पहले से इस विषय में विद्यमान सामग्री का भी इसमें उपयोग किया।[1] योगसूत्र में चित्त
को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। पतंजलि के अनुसार ‘चित्त की वृत्तियों
को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर-उधर भटकने
न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है।
यह आत्मा और परमात्मा
के योग या एकत्व के विषय में है और उसको प्राप्त करने के नियमों व उपायों के विषय में।
यह अष्टांग योग भी कहलाता है । पतंजलि ने इसकी व्याख्या की है। ये आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,
ध्यान और समाधि |
महर्षि
पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है। योगसूत्र
में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले
योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों
वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास
एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:
१. यम: पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों
से किसी को हानि नहीं पहुँचाना ।
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना ।
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना ।
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
* चेतना को ब्रह्म
के ज्ञान में स्थिर करना ।
* सभी इन्द्रिय-जनित
सुखों में संयम बरतना ।
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों
की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना ।
२. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि ।
(ख) संतोष - हमेशा संतुष्ट और प्रसन्न रहना ।
(ग) तप - स्वयं से अनुशासित रहना ।
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना और अच्छे साहित्य का लगातार
अध्ययन करना ।
(च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
।